प्रतापगढ़

कांठल की मशहूर मसूर: कभी देशभर में थी पहचान, अब उत्पादन और गुणवत्ता दोनों में गिरावट

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राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले के कांठल अंचल की मसूर कभी देशभर में अपने बेहतरीन स्वाद, मोटे दानों और प्राकृतिक उत्पादन विधियों के लिए जानी जाती थी। लेकिन अब स्थिति बदल गई है। जहां पहले प्रतिदिन सैकड़ों बोरी मसूर मंडियों में पहुंचती थी, आज वो संख्या 70-80 बोरी प्रतिदिन पर सिमट गई है। यह बदलाव न केवल स्थानीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रहा है, बल्कि किसानों के आत्मविश्वास को भी झटका दे रहा है।

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📉 क्यों घट रही है मसूर की आवक?

प्रतापगढ़ कृषि उपज मंडी के आंकड़े साफ दर्शाते हैं कि 2016 में 85,842 क्विंटल मसूर बाहर भेजी गई थी, जबकि 2024 तक यह गिरकर मात्र 51,872 क्विंटल रह गई है। इसके पीछे कई कारण हैं:

  • जलवायु परिवर्तन
  • कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग
  • रासायनिक उर्वरकों की निर्भरता
  • पारंपरिक खेती से दूरी

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🌱 कांठल की जलवायु: मसूर के लिए आदर्श लेकिन अब उपेक्षित

कांठल अंचल की मिट्टी और मौसम मसूर के लिए एकदम अनुकूल माने जाते हैं। यहां सर्दियों में जमीन में लंबे समय तक नमी बनी रहती है, जिससे सिंचाई की आवश्यकता कम होती है। दानों का आकार बड़ा, और स्वाद अधिक होता है। किसान मात्र एक-दो बार सिंचाई कर कम लागत में अधिक उत्पादन प्राप्त कर लेते थे।

लेकिन अब:

  • खेतों की उर्वरता में गिरावट
  • ‘उबासूख’ की समस्या
  • रसायनों के कारण मिट्टी की संरचना खराब

📊 मसूर का 9 वर्षों का उत्पादन और निर्यात ग्राफ

वर्षनिर्यात मात्रा (क्विंटल)
201685,842
201774,258
201875,284
201965,874
202068,425
202158,745
202265,874
202352,587
202451,872

इस आंकड़े से साफ है कि लगातार गिरावट का रुझान बना हुआ है, जिसे तुरंत प्रभावी नीति और किसान सहायता से रोका जा सकता है।


🚜 सरकार की पहल: क्या बन सकेगा कांठल का भविष्य फिर से सुनहरा?

हाल के बजट में मसूर, उड़द और तुवर जैसी दलहनी फसलों को आत्मनिर्भरता योजना में शामिल किया गया है।
यदि इस योजना का प्रभावी क्रियान्वयन किया जाए तो:

  • कांठल जैसी प्राकृतिक खेती के क्षेत्र को लाभ मिलेगा
  • स्थानीय किसान सशक्त होंगे
  • मसूर की पहचान फिर से स्थापित की जा सकती है

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🧪 जैविक खेती ही है समाधान

कृषि विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि किसान फिर से गोबर की खाद, फसल चक्र, और परंपरागत जैविक तकनीकों को अपनाएं, तो मसूर का उत्पादन न केवल बढ़ेगा, बल्कि उसकी गुणवत्ता भी पहले जैसी हो जाएगी। साथ ही बाजार में उसकी मांग भी फिर से बढ़ेगी।


🚚 बाजार में मांग घटने के कारण

  • दिल्ली, उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में मसूर की मांग पहले अधिक थी।
  • अब गुणवत्ता में कमी और अन्य विकल्पों की मौजूदगी के कारण बाजार सिकुड़ गया है।
  • स्थानीय व्यापारी भी स्वीकार करते हैं कि अब बाहर माल भेजना पहले जितना फायदेमंद नहीं रहा।

📌 निष्कर्ष

कांठल की मसूर सिर्फ एक फसल नहीं, बल्कि एक पहचान थी। यदि किसान, प्रशासन और कृषि विभाग मिलकर जैविक और पारंपरिक खेती को फिर से अपनाते हैं, तो न केवल मिट्टी की उर्वरता लौटेगी, बल्कि कांठल की मसूर की देशभर में खोई हुई प्रतिष्ठा भी वापस आ सकती है।

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