मां सिर्फ जन्म नहीं देती, हर बार जीवन भी देती है
हर मां अपने बच्चे की सलामती के लिए हर सीमा पार कर जाती है। लेकिन कुछ मांएं ऐसी भी होती हैं जो रोज़ मौत और जिंदगी के बीच जूझते अपने बच्चे को सिर्फ पाल नहीं रही, बल्कि हर सांस के लिए लड़ रही हैं। प्रतापगढ़ जिला अस्पताल की ‘स्पेशल 42 मां’ इसी जज्बे की मिसाल हैं। ये वो महिलाएं हैं, जिनके बच्चे थैलेसीमिया जैसी गंभीर बीमारी से पीड़ित हैं और उन्हें हर महीने दो से तीन बार खून चढ़ाने के लिए लाया जाता है।
थैलेसीमिया से लड़ते बच्चों की सबसे बड़ी ताकत: उनकी मां
थैलेसीमिया से ग्रसित बच्चों की कहानी जितनी पीड़ादायक है, उतनी ही प्रेरणादायक हैं उनकी मांओं की जिंदगियां। इस वक्त प्रतापगढ़ जिले में 42 बच्चे थैलेसीमिया से पीड़ित हैं, जिन्हें हर महीने कम से कम दो बार ब्लड ट्रांसफ्यूजन की जरूरत होती है। इन बच्चों के इलाज में जो सबसे बड़ा स्तंभ है, वो हैं उनकी मांएं – जो न थकती हैं, न रुकती हैं।
रक्त की तलाश में हर बार जंग लड़ती हैं मांएं
इन बच्चों में फरहा (3), निहाल (3), अदनान (2), हर्ष (4), देवीलाल (5) और ईश्वर (4 माह) जैसे कई नाम शामिल हैं, जो हर हफ्ते अपने माता-पिता के साथ ब्लड के लिए जिला अस्पताल की ओर रवाना होते हैं।
ब्लड ग्रुप का विवरण:
- O+ : 16 बच्चे
- B+ : 13 बच्चे
- A+ : 9 बच्चे
- AB+ : 3 बच्चे
- AB− : 1 बच्चा
AB- ब्लड ग्रुप दुर्लभ होने के कारण इन बच्चों के लिए हर बार खून जुटाना एक बड़ा संकट बन जाता है। इसके बावजूद ये मांएं कभी हार नहीं मानतीं।
जिला अस्पताल के पास नहीं हैं पर्याप्त संसाधन, फिर भी जारी है संघर्ष
प्रतापगढ़ जिला अस्पताल में ना तो थैलेसीमिया सेंटर है, ना ही इस बीमारी के इलाज के लिए कोई विशेष सुविधा। फिर भी ब्लड बैंक सीमित संसाधनों में इन बच्चों का जीवन बचा रहा है।
डॉ. दिलीप, नर्सिंग ऑफिसर, लैब असिस्टेंट और काउंसलर की टीम दिन-रात इन बच्चों की सेवा में जुटी हुई है। परंतु सच्चे मायनों में ये संघर्ष माताओं का है, जिन्होंने अब खुद ब्लड डोनर तलाशना सीख लिया है और इलाज की जानकारी भी जुटा ली है।
इन ‘स्पेशल 42 मां’ की कुछ प्रेरणादायक कहानियां
🔹 हथुनिया की इशरद बानो और अदनान की कहानी
अदनान को पहली बार जब खून चढ़ाया गया था, तब वो सिर्फ 8 महीने का था। अब वो 6 साल का हो चुका है और हर दो-तीन हफ्ते में ब्लड ट्रांसफ्यूजन कराना उसकी जिंदगी का हिस्सा बन गया है।
इशरद बानो खेतों में मजदूरी करने वाले पति और सीमित आमदनी के बावजूद अदनान को हर बार जिला अस्पताल तक लाने के लिए बस, ऑटो और लंबी कतारों से गुजरती हैं।
“मेरी नींद तो कब की छिन गई, अब बस उम्मीद रहती है कि अगली बार फिर ब्लड मिल जाए,” – इशरद बानो
🔹 ढलमु मानपुरा की संगीता लबाना: जब तक मैं हूं, वो भी रहेगा
संगीता के बेटे हर्ष को पिछले 6 साल से थैलेसीमिया है। पति शहर में मोबाइल की दुकान चलाते हैं। संगीता खेत में काम करने के साथ-साथ कभी बस, कभी ट्रैक्टर, कभी किसी जानकार की मदद से बेटे को लेकर अस्पताल आती हैं।
“हर्ष मेरी हर सांस है, जब तक मैं हूं, तब तक वो भी रहेगा,” – संगीता लबाना
🔹 पीपलखूंट की हकरी मईड़ा: तीन बच्चों की मां, तीन जिंदगियों की जिम्मेदारी
हकरी मईड़ा के तीनों बच्चे – पायल (16), मोनिका (19), अजय (17) – थैलेसीमिया से पीड़ित हैं। पति तोलाराम शिक्षक हैं, लेकिन तीन बच्चों की बीमारी ने पूरी जिंदगी बदल दी है।
हकरी हर बार पीपलखूंट से तीनों बच्चों को बस में लेकर जिला अस्पताल पहुंचती हैं।
“एक बच्चा बीमार हो तो मां टूट जाती है, मैंने तीन को लेकर चलना सीखा है,” – हकरी मईड़ा

इन मांओं की मांगें और उम्मीदें
इन मांओं की स्पष्ट मांगें हैं:
- ब्लॉक स्तर पर ब्लड ट्रांसफ्यूजन की सुविधा
- नियमित दवाएं उपलब्ध कराई जाएं
- गरीब परिवारों को आर्थिक मदद दी जाए
- थैलेसीमिया के लिए स्थायी केंद्र बने
निष्कर्ष: मां होना सिर्फ जन्म देना नहीं होता
‘स्पेशल 42 मां’ की ये कहानियां बताती हैं कि मां सिर्फ जन्म नहीं देती, बल्कि बार-बार अपने बच्चे को फिर से जीवन देती है। प्रशासन से लेकर समाज तक हर व्यक्ति को इनके संघर्ष को समझना और सहयोग करना जरूरी है।
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